Saturday, April 20, 2013

चल कंही दूर ले चल मुझे

ऐ ज़िन्दगी 
अब तू ही बता ,अब कैसे जिया जाय 
चल कंही दूर ले चल मुझे 
जंहा ना कोई अपना हो 
ना पराया 
जंहा ना धूप हो ना उस की परछाई 
अब तो मुझे अपनों से डर लगने लगा है
सपने देखना तो कब का छोड़ दिया
चल कंही दूर ले चल मुझे
मेरी आरजू यही है कंही गुमनाम हो जाऊ
ना जहन में ना किसी के जिक्र में आऊ
ले चल मुझे कंही
जंहा खामोसी से धरती की चादर ओढ़ के सो जाऊ
कहने को तो सब अपने है
पर हमदर्द हमारा कोई नहीं
ऐसी दुनिया में क्या रहना
जंहा जीने का हमे कोई हक़ नहीं
ये ज़िन्दगी
चल ले चल अब मुझे दूर कंही
_____________________________ ( आलोक )


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