ज़िन्दगी ने मुझको क्या हसना सिखा दिया
कुछ अपनों ने ही मुझपे पत्थर उठा लिया
सोचा के निकला था घर आ जाउंगा रात तक
आते समय कुछ दोस्तों ने कांटा बिछा दिया
मिल जाये सुखी धरती को थोड़ी सी नमी
मैंने अपने पांव के छालो में कांटा चुभा लिया
अब ज़िन्दगी उलझ गयी है पैसो के खेल में
ना मिली दवा तो माँ ने बच्चा गवा दिया
अपनों को ही लुटते रहे कुछ अपने ही रहनुमा
अपने घर कि रौशनी के लिए मेरा घर जला दिया
कुछ नहीं बचा तो मै चला अपनी ज़िन्दगी के पास
उस ज़िन्दगी ने भी मेरे खाने में जहर मिला दिया
_________________________________ ( आलोक पाण्डेय )
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