Saturday, October 26, 2013

बात बिगड़ी थी अगर सुलझ सकती थी जो तुम चाहते

चाह के भी हम दोनों एक दुसरे के करीब ना आ सके
मंजिल थी बहुत करीब फिर भी उसे ना हम पा सके

दिल के जितने करीब थे फासले उतने ही बढ़ते गए
ना तुम हमे समझ सके ना हम तुम्हे समझा सके

हमारे रिश्तो की डोर के सारे धागे उलझ के रह गए
शायद मुझमे थी कमी या तुम किसी के करीब आ गए

बात बिगड़ी थी अगर सुलझ सकती थी जो तुम चाहते
तुमने भी हाथ रोक लिया हाथ हम भी ना बड़ा सके

नहीं मालूम क्यों मिटाने चले थे मेरे ज़िन्दगी के रास्ते
बड़े खुदगर्ज़ आये यंहा पर नाम तक मेरा न मिटा सके
____________________________________ ( आलोक पाण्डेय  )
 



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