Friday, May 23, 2014

है अगर प्यार सच्चा तो

वो शख्स रूठा है बहुत दिनों से
बोलो आजमाना चाहिए
या मनाना चाहिए ?

मै कहता हु …
है अगर प्यार सच्चा तो
खुद ही हाथ बढ़ाना चाहिए

दूर रहने से बढ़ जाती दूरिया अक्सर
बैठ के शिकवे गीले मिटाना चाहिए

माना की लब खामोश है उसके
पर आँखे अक्सर बोलती है
सुना है मैंने
कभी कभी खुद को पाने के लिए
आँखों को भी पढ़ा जाना चाहिए
है प्यार दो दिलो के दरमियाँ अगर
तो रूठे हुए शख्स को लौट आना चाहिए

ना होता गर उसे प्यार तुझसे
तो रोती क्यों उसकी आँखे इतना
ये प्यार ही तो है
जो बरसो से लिपटी रही
तुझसे साये की तरह

माना हुई उससे कोई खता
तो हो जाओ खफा
पर कुछ लम्हों के बाद उसे करीब लाना चाहिए

सोचना कभी क्यों थे तुम दोनों
एक दूसरे के साथ ' आलोक '
शायद वो प्यार था
तुम्हे उसे वापस पाना चाहिए

वो शख्स कितना कीमती है तुम्हारे लिए
उसे हस के फिर से गले लगाना चाहिए
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आलोक पाण्डेय  ( २४/०५/२०१४  )





लिखी एक ग़ज़ल

एक कोरे से कागज पे जो लिखा तेरा नाम
मानो जैसे तू सामने बैठी हुई मुस्करा रही है

रखा जो एक गुलाब किताबो में तेरे नाम का
ऐसा लगा की तू मेरे साथ गुनगुना रही है

लिखी एक ग़ज़ल जो तुझको याद करके मैंने
अब भी पन्नो से तेरी खुसबू की महक आ रही है

अब तू ही बता कैसे कहु साथ नहीं तू मेरे हमदम
रात  के ख्वाबो में मेरे तू ही तू नज़र आ रही है

ये हवा ये रस्क ये फूलो की महक कहती है कुछ
ऐसा लगता है तू धीरे -२ मेरे करीब आ रही है
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आलोक पाण्डेय ( २४/०५ /२०१४  )

Thursday, May 8, 2014

आदमी ही आदमी को सताते रहे

सफ़र मे लोग आते रहे लोग जाते रहे
आदमी ही आदमी को सताते रहे

पंछी निकले थे घोसलों से अभी
लोग उनको शिकार बनाते रहे

लूट के खा गये देश को भेड़िये (इंसान)
हम अपनों को हि आजमाते रहे

लाश गिरती रही सरहदो पे मगर
हम जश्न अपने घर का मानते रहे

उम्र है जब बच्चो के  खेलने के
उनके हाथों मे तमंचे थमाते रहे

भाई -भाई को नहि देखता है इधर
पहले जो गले से गले मिलाते रहे

हाथ थाम के किसी को सहारा दीया
उसे भलाई बता हम गिनाते रहे

बूढ़े मा -बाप का दुख किसने देखा भला
लोग खुद में मदमस्त हो जीते जा रहे

है  नाजुक बहुत मेरे हालात जो अब
मेरे अपने भि मुझे छोड़ के जाते रहे

बच्चे रोते रहे घर मे रात भर भूख से
दूध-घी लोग पत्थलो पे चढ़ाते रहे

लुटती रही बेटिया जलती रहीं बस्तिया
आँख पे बांध पट्टी हम मुह  छुपाते रहे

ज़िन्दगी ने दिये बहुत से रिश्ते हमे
कुछ हसाते रहे तो कुछ रूलाते रहे

 कोई मन्दिर गया कोइ मस्जिद गया
आलोक माँ के क़दमों मे सर झुकाते रहे
___________________________  ( आलोक पाण्डेय  )