Thursday, May 8, 2014

आदमी ही आदमी को सताते रहे

सफ़र मे लोग आते रहे लोग जाते रहे
आदमी ही आदमी को सताते रहे

पंछी निकले थे घोसलों से अभी
लोग उनको शिकार बनाते रहे

लूट के खा गये देश को भेड़िये (इंसान)
हम अपनों को हि आजमाते रहे

लाश गिरती रही सरहदो पे मगर
हम जश्न अपने घर का मानते रहे

उम्र है जब बच्चो के  खेलने के
उनके हाथों मे तमंचे थमाते रहे

भाई -भाई को नहि देखता है इधर
पहले जो गले से गले मिलाते रहे

हाथ थाम के किसी को सहारा दीया
उसे भलाई बता हम गिनाते रहे

बूढ़े मा -बाप का दुख किसने देखा भला
लोग खुद में मदमस्त हो जीते जा रहे

है  नाजुक बहुत मेरे हालात जो अब
मेरे अपने भि मुझे छोड़ के जाते रहे

बच्चे रोते रहे घर मे रात भर भूख से
दूध-घी लोग पत्थलो पे चढ़ाते रहे

लुटती रही बेटिया जलती रहीं बस्तिया
आँख पे बांध पट्टी हम मुह  छुपाते रहे

ज़िन्दगी ने दिये बहुत से रिश्ते हमे
कुछ हसाते रहे तो कुछ रूलाते रहे

 कोई मन्दिर गया कोइ मस्जिद गया
आलोक माँ के क़दमों मे सर झुकाते रहे
___________________________  ( आलोक पाण्डेय  )









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