Thursday, June 5, 2014

एक ग़ज़ल

सुबह हुई तो कुछ निखर आये हम
रात सपनो में फिर कंही गुम हो गयी
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लिखना जो चाहा एक ग़ज़ल
तो ये आँखे बहुत रोई
तुझे याद करके
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मै क्या क्या कहु कैसे बीते है दिन
उन्हें क्या पता कैसे जीते है हम

पेट की भूख ले आई गांव से शहर
हर कोने में अब भटकते है हम

सर पे छत जो मिली इतनी बड़ी
चाँद सितारों से बाते करते है हम

कुछ भी ना मिला मै गुम हो गया
एक फुटपाथ है जिसपे सोते है हम
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आलोक पाण्डेय





Wednesday, June 4, 2014

तू है यही कंही आस पास

हादसों की दुनिया में मैंने है सब कुछ पाया
बस नहीं मिला मुझको बस एक प्यार तुम्हारा

गलियो -गलियो ढूंढा तुझको सपने भी तेरे देखे
जाने कहा गयी तुम आया ना कोई खत दुबारा

एक तेरी खातिर मैंने  जाने कितने अपने खोये
फिर भी ना हो  पाया बस एक दीदार तुम्हारा

काबा गया काशी गया हर मंदिर पे टेका माथा
टूट गयी सारी उम्मीदे फिर नहीं हुआ विश्वास

जीवन के इस भाग दौड़ में क्या खोया क्या पाया
फिर भी दिल कहता है तू है यही कंही आस पास
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आलोक पाण्डेय