Thursday, June 5, 2014

एक ग़ज़ल

सुबह हुई तो कुछ निखर आये हम
रात सपनो में फिर कंही गुम हो गयी
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लिखना जो चाहा एक ग़ज़ल
तो ये आँखे बहुत रोई
तुझे याद करके
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मै क्या क्या कहु कैसे बीते है दिन
उन्हें क्या पता कैसे जीते है हम

पेट की भूख ले आई गांव से शहर
हर कोने में अब भटकते है हम

सर पे छत जो मिली इतनी बड़ी
चाँद सितारों से बाते करते है हम

कुछ भी ना मिला मै गुम हो गया
एक फुटपाथ है जिसपे सोते है हम
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आलोक पाण्डेय





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