Thursday, January 1, 2015

आलोक ( एक अधूरा सा ख्याल।

धीरे धीरे एक एक दिन
गुजरता जा रहा वक़्त
हर एक लम्हे को जिया
और खुश रहा
कुछ राहो में नए लोग मिले
तो कुछ पुराने रिश्ते टूट गए
बहुत मुश्किल होता
सफर में अकेले कंही जाना
धीरे -धीरे यकी हुआ
हर सफर में कोई हमसफ़र नहीं होता
मिलना बिछड़ना लगा रहता
जब तक मंज़िल ना मिले
यु ही चलते रहो
शायद मंज़िल मिल जाये
तो कुछ खोये हुए लोग भी मिल जाये
है उम्मीद बाकि अभी
पर ये मिलने और बिछड़ने का सिलसिला
यु  ही चलता रहेगा
वक़्त थमता नहीं
अपनी रफ़्तार से निकलता रहेगा
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आलोक ( एक अधूरा सा ख्याल। . यु ही )

2 comments:

  1. आलोक जी आपकी रचनाएं इतनी सुन्दर रहती है जैसे की आपका नाम "आलोक" बहुत बहुत बधाईया

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  2. सुपर भैया जी, मै आपका फैन हू
    मुझे आपकी लेखनी इतनी पसंद है, जितनी सुबह शाम की चाय…

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