हा नहीं भुला हु बचपन के वो प्यारे से दिन
वो लड़ना झगड़ना एक दूसरे का रूठना मनाना
वो किताबो के अंदर छुपा के मोर पंख ले जाना
कभी हसते -२ जाना कभी रोते -२ स्कूल जाना
घर लौटने के बाद वही बालू -मिट्टी के घर बनाना
हां नहीं भुला हु दोस्तों के साथ वो टिफ़िन का खाना
बहुत याद आती है वो बर्फ के गोले ,चूरन की पुड़िया
वो स्याही से रँगे हुए कपडे और वो दोस्तों का साथ
कभी पेट दर्द का बहाना कभी होमवर्क पूरा ना हो पाना
स्कुल ना जाने के कितने सारे बहाने बनाना
पर सब बहाने पापा के सामने आते हो जाते फ्लॉप
क्या दिन थे वो माँ का अपने हाथो से खाना खिलाना
पापा के गुस्से पे माँ के आँचल में जाके सो जाना
वो दोस्तों संघ कांच की गोलिया वो गुल्ली वो डंडे
और छोटे से गुलक में अपने पैसे बचाना
वो छुट्टी की घंटी फिर कमरे से दौड़ के वो बाहर आना
लगता बरसो बाद मिले ऐसे दोस्तों से गले लग जाना
की कास वो बचपन के दोस्त वैसे ही अब मिल पाते
बचपन के वो सारी खुशियो के फूल फिर खिल जाते
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आलोक पाण्डेय